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पगडंडी और पाथर, कवि की भावना का सुन्दर व्याख्यान

पगडंडी और पाथर

पगडंडी और पाथर

कब से यही जमे हो,
या बेदर्द जमाना छोड़ गया।
बिछुड़ गए हो खुद अपनों से,
या अपनो ने मुंह मोड़ लिया।।

धूप छाँव अनमेल मेल से
या तुम्हे खेल सा भा गया,
बिरह बेदना का सागर
या बेरहम बिधरमी छल गया।।

कोई नहीं रहा हम राही,
जो अंतर द्वंद से उबार सके।
धोखाधड़ी छली दोष से,
कोई दिनकर सा उद्धार सके।।

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